Introduction:
’सआदत हसन मंटो’ एक लोकप्रिय लेकिन उतानेही controverasil उर्दू writer में से एक थे. उनकी writing समाज की harsh reality के इर्द गिर्द रहती है. वो अपनी कहानियों में समाज की उन सच्चाई को दिखाते है जो कोई और लिखनेकी कोशिश नहीं करते. या ये कहे के उस सच्चाई को अनदेखा करते हैं.
2018 में आई biographical film ‘ मंटो ’ directed by Nandita Das . इस film में Nawazuddin Siddiqui ने Manto का किरदार बड़ी संवेदनशीलता से निभाया हैं. इस film का 1 scene जिसमे मंटो पर लगाए गए इल्ज़ाम पर मंटो के ही लिखे हुए शब्दों मे यह monologue nawazuddin sidhhiqui बोलते है, जिसमे ओ समाज का घिनोना रूप और पाखंडो की निडरता से आलोचना करते हुए दिखाई देते है.

दोस्तो इस blog मे हम “मंटो” फिल्म का ऐसा monologue देखेंगे, जो actor की preparation मे महत्वपूर्ण है. उर्दू- हिंदी का ये monologue prepare करते वक्त आपको उर्दू का अभ्यास करना होगा. साथ में आपके diction पर काम होगा. मैने इस monologue का हर एक शब्द नुक्ते के साथ सही से लिखने की कोशिश की है और कुछ कठीण शब्दो का अर्थ भी लिखा है. आप भी उसे वैसे ही prepare करे. उर्दू शब्दों पे ध्यान दीजिए. नुक्ते का सही से उच्चारण कीजिए और कमेंट करके बताईये की आपको ये blog कैसा लगा? क्या आपके audition के अभ्यास मे इसका फायदा हुआ ? और कोई समस्या हो तो आप actorshital@gmail.com पे लिख सकते है.
Monologue:
बाज़ ( अलग ,विभक्त) लोग मुझे मज़दुर दोस्त कहते है, कुछ कहते है की मैं फ़हश (अश्लील) हू, याने offscene और vulger कहानियाँ लिखता हू। कुछ कहते है, मै तरक्की पसंद हू, progressive हूं। ये क्या बेहूदगी (व्यर्थ बात) है? मंटो एक इंसान है और हर इंसान को progressive होना चाहिए। मुझ पर इल्ज़ाम ( आरोप ) है की मै औरत और मर्द के जिन्स रिश्ते के बारे में लिखता हू , वेश्याओं और रंडियो के बारे में लिखता हू। मेरा मानना है की, हर उस चीज़ के बारे में लिखा जाना चाहिए जो आपके सामने मौजूद हो।
मेरी कहानियाँ पढ़कर किसी भी normal इंसान की मुँह से घटिया जज़्बात की लार नहीं टपकती। आपको मेरा अफ़साना (कहानी) पसंद आये न आये, इसका फ़ैसला आप कर ले। मेरी कहानी मेरी दूसरी कहानी की पायकी है या नहीं इसपे बहस ,क्रिटिक कर ले ,लेकिन अदब याने liturature हरगिज़ – हरगिज़ फ़हश(अश्लील) नहीं हो सकता।
मुझपे अब तक कई मुकदमे चल चुके है। अक्सर लोग मुझसे आकर पूछते है की, आप ऐसी कहानियाँ क्यों लिखते है? क्यों न लिखू ? क्यों न लिखू वेश्याओं के बारे में ,क्या ओ हमारे समाज का हिस्सा नहीं ? उनके यहाँ मर्द नमाज़ पढ़ने तो नहीं जाते। उन्हें वहाँ जाने की खुली इजाज़त है, लेकिन हमे उनके बारे में लिखने की नहीं, क्यों नहीं ?
जो चीज़ जैसी है, उसे वैसे ही पेश क्यों न किया जाये ? ताट को रेशम क्यों कहा जाये। हक़ीक़त से इंकार करना क्या हमें बेहतर इंसान बनाएगा ?
मेरे मुक़दमोंमे प्रोसिक्यूटर साहब अक्सर इस बात पर जोर देते थे की , मेरी कहानियो में कुछ किरदारों की ज़बाने गालियों से भरी है। जो अल्फ़ाज़ मैंने उनके मुँह से कहलवाए है, ओ हज़ारों लोग रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल करते है। मिसाल के तौर पर मै आपसे कहु,” यार आप तो अजब चुतीया हो। मै यहाँ हूं, और आप मुझे वहा ढूंढ रहे हो। ” तो क्या मै आपको गाली दे रहा हू ? क्या इस तरीके के अल्फ़ाज़ हमें सड़को पे सुनाई नहीं देते ? यह ज़रूरी है ,की ज़माने की करवटों के साथ अदब (सभ्यता) भी करवट बदल दे।
फ्रांस के मशहूर novelist Gustave Flaubert की कहानी “ मैडम बोवेरी ” पर फ़हशी का इल्ज़ाम लगाया गया था। Irish writer james Joyce
की किताब “ Ulysses ” को भी फ़हशी का इल्ज़ाम झेलना पड़ा। देखा जाए तो ‘वली’
से लेकर ‘ ग़ालिब ’ तक सब पर कभी ना कभी यह इल्ज़ाम लगे हैं। इसीलिए यह कोई नई बात तो नहीं।
( लड़का बिच मे बोलता हैं)
लड़का: जी मैं अनसार शबनम दिल
मंटो: पहले तो आप अपना नाम बदलो, फिर मुझेसे मुख़ातिब
( फेस टू face)
हो। तो मैं कह रहा था कि ?
लड़का: माफी चाहता हूं, मुझे यह लगता है कि आपके कई अफ़साने मायूसी और अफ़्सुर्दगी(उदासीनता) से भरे होते हैं। इन्हें पढ़ कर तो कोई भी ख़ुदखुशी कर ले।
मंटो: हां अगर उसका नाम अंसार या उसके बाद जो कुछ भी है, वह हो तो कर सकता है। देखो बर–ख़ुर्दार, तुम यह हरगिज़(कभी नहीं) नहीं जानते कि दूसरों को कैसा महसूस होता है। इसलिए आगे से सिर्फ़ अपनी कहना।
मैं बनाव, श्रृंगार करना नहीं जानता हूं। किसी की जलालत (श्रेष्ठता) पर इस्त्री करना नहीं जानता हूं। नीम के पत्ते कड़वे सही ख़ून तो साफ़ करते हैं। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि, मेरी कहानी तो एक आईना है, जिसमें समाज अपने आप को देख सकता है, और अगर किसी बुरी सूरत वाले को आईने से ही शिकायत हो, तो उसमें मेरा क्या कसूर। अगर आप मेरी कहानियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि, ज़माना ही ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त(असहनीय) है।
मैं कोई हंगामा पसंद नहीं और ना ही sensationalist (सनसनीबाज) हूं। मैं समाज की चोली क्या उतारूंगा ? जो पहले से ही नंगी है। उसे कपड़े पहनाना मेरा काम नहीं है। मैं काली तख़्ती पे सफेद चौक इस्तेमाल करता हूं। ताकि काली तख़्ती और भी नुमाया( जो स्पष्ट दिखाई देता हो) हो जाये। मैं अपनी आंखे बंद भी कर लू, लेकिन अपने ज़मीर(अंतरात्मा ) का क्या करू?
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